विनायक दामोदर सावरकर
विनायक दामोदर सावरकर (अंग्रेजी: Vinayak
अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे।
उन्हें प्रायः वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित किया
जाता है। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा
सावरकर को जाता है। वे न केवल स्वाधीनता-संग्राम
के
एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु महान क्रान्तिकारी,
चिन्तक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा
दूरदर्शी राजनेता भी थे। वे एक ऐसे इतिहासकार भी हैं
जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को
प्रामाणिक ढँग से लिपिबद्ध किया है। उन्होंने १८५७ के
प्रथम स्वातंत्र्य समर का सनसनीखेज व खोजपूर्ण
इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला कर रख
दिया था[
जीवन वृत्त
विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (तत्कालीन नाम
था। उनकी
दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई गणेश
(बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन
नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष के थे
महामारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधारे। इसके
बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-
पोषण का कार्य सँभाला । दुःख और कठिनाई की इस
घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा
प्रभाव पड़ा। विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक
से १९०१ में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे
पढ़ाकू तो थे ही अपितु उन दिनों उन्होंने कुछ कविताएँ
भी लिखी थीं। आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने
विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया।
इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को
संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही
इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति
त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ
उनका विवाह हुआ। उनके ससुर जी ने उनकी
विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। १९०२ में
मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन
कालेज से बी०ए० किया।
लन्दन प्रवास
१९०४ में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक
विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली
जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से
ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर
वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन
सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में
उनके अनेक लेख प्रकाशित हुये, जो बाद
में कलकत्ता के
युगान्तर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों
इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता
संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर
विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में
प्रमाणों
सहित १८५७ के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के
स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया।[5] जून, १९०८
में इनकी पुस्तक द इण्डियन वार ऑफ इण्डिपेण्डेंस :
१८५७ तैयार हो गयी परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या
आयी। इसके लिये लन्दन से
वे
सभी प्रयास असफल रहे। बाद में यह पुस्तक किसी
प्रकार गुप्त रूप से हॉलैंड से प्रकाशित हुई और इसकी
सावरकर
ने १८५७ के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के
खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया। मई १९०९
में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा
उत्तीर्ण की, परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की
अनुमति
नहीं मिली।
लाला हरदयाल से भेंट
लन्दन में रहते हुये उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से
हुई जो उन दिनों इण्डिया हाऊस की देखरेख करते थे। १
जुलाई, १९०९ को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट
कर्जन वायली को गोली मार दिये जाने के बाद
उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था। १३
मई, १९१० को पैरिस से लन्दन पहुँचने पर उन्हें
गिरफ़्तार कर लिया गया परन्तु ८ जुलाई, १९१० को
एस०एस० मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए
सीवर होल के रास्ते ये भाग निकले।[6] २४ दिसंबर,
१९१० को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी।
इसके बाद ३१ जनवरी, १९११ को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया[6]। इस प्रकार सावरकर को
ब्रिटिश
सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म
कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली
एवं अनोखी सजा थी। सावरकर के अनुसार -
"मातृभूमि! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूँ। देश-सेवा ही ईश्वर-सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की।"
नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए
नासिक षडयंत्र काण्ड के अंतर्गत इन्हें ७
अप्रैल, १९११ कोकाला पानी की सजा पर सेलुलर
जेल भेजा गया। उनके अनुसार यहां स्वतंत्रता
सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। कैदियों
को यहां नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना
पड़ता था। साथ ही इन्हें यहां कोल्हू में बैल की तरह
जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना
होता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर
के जंगलों को साफ कर दलदली भूमी व पहाड़ी क्षेत्र को
समतल भी करना होता था। रुकने पर उनको कड़ी
सजा
व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थीं। इतने पर भी
उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया
स्वतन्त्रता संग्राम
१९२१ में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर ३ साल
जेल भोगी। जेल में उन्होंने हिंदुत्व पर शोध ग्रन्थ
लिखा। इस बीच ७ जनवरी, १९२५ को इनकी पुत्री,
प्रभात का जन्म हुआ। मार्च, १९२५ में उनकी
भॆंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक,
विश्वास का जन्म हुआ। फरवरी, १९३१ में इनके प्रयासों
से बम्बई में पतित पावन मन्दिर की स्थापना हुई, जो
सभी हिन्दुओं के लिए समान रूप से खुला था। २५
फरवरी, १९३१ को सावरकर ने बम्बई प्रेसीडेंसी में
हुए अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की[6]।
१९३७ में वे अखिल भारतीय हिन्दू
अध्यक्ष चुने गये, जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के
लिये अध्यक्ष चुने गये। १५ अप्रैल, १९३८ को
उन्हें मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया।
१३ दिसम्बर,
नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई। ९ अक्तूबर, १९४२को
भारत की स्वतन्त्रता के निवेदन सहित
उन्होंने चर्चिल को तार भेज कर सूचित किया।
सावरकर जीवन भर अखण्ड भारत के पक्ष में रहे।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के माध्यमों के बारे में गान्धी और
सावरकर का एकदम अलग दृष्टिकोण था। १९४३ के
भ्राता बाबूराव का देहान्त हुआ। १९ अप्रैल, १९४५ को
उन्होंने अखिल भारतीय रजवाड़ा हिन्दू सभा
सम्मेलन की अध्यक्षता की। इसी वर्ष ८ मई को उनकी
पुत्री प्रभात का विवाह सम्पन्न हुआ। अप्रैल १९४६ में
बम्बई सरकार ने सावरकर के लिखे साहित्य पर से
प्रतिबन्ध हटा लिया। १९४७ में इन्होने भारत विभाजन
का विरोध किया।महात्मा रामचन्द्र वीर नामक (हिन्दू
महासभा के नेता एवं सन्त) ने उनका समर्थन किया।
स्वातन्त्र्योपरान्त जीवन
भारतीय तिरंगा एवं भगवा, दो-दो ध्वजारोहण किये।
इस अवसर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने
पत्रकारों से कहा कि मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है
, परन्तु वह खण्डित है, इसका दु:ख है। उन्होंने यह भी
कहा कि राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या सन्धि-
पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, वे देश के नवयुवकों के
शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं५
प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के अन्तर्गत गिरफ्तार
नारायणराव का देहान्त हो गया। ४
भारत संगठन को उसके उद्देश्य (भारतीय स्वतन्त्रता
प्राप्ति) पूर्ण होने पर भंग किया गया। १०
हुए, १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के
शाताब्दी समारोह में वे मुख्य वक्ता रहे। ८
की मानद उपाधि से अलंकृत किया। ८
उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया।
प्रातः १० बजे उन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम
को प्रस्थान किया
सामाजिक उत्थान
सावरकर एक प्रख्यात समाज सुधारक थे। उनका दृढ़
विश्वास था, कि सामाजिक एवं सार्वजनिक सुधार
बराबरी का महत्त्व रखते हैं व एक दूसरे के पूरक हैं।
उनके समय में समाज बहुत सी कुरीतियों और बेड़ियों
के बंधनों में जकड़ा हुआ था। इस कारण हिन्दू समाज
बहुत ही दुर्बल हो गया था। अपने भाषणों, लेखों व
कृत्यों से इन्होंने समाज सुधार के निरंतर प्रयास किए।
हालांकि यह भी सत्य है, कि सावरकर ने सामाजिक
कार्यों में तब ध्यान लगाया, जब उन्हें राजनीतिक
कलापों से निषेध कर दिया गया था। किंतु उनका
समाज सुधार जीवन पर्यन्त चला। उनके सामाजिक
उत्थान कार्यक्रम ना केवल हिन्दुओं के लिए बल्कि
इनके जीवन का समाज सुधार को समर्पित काल रहा।
सावरकर के अनुसार हिन्दू समाज सात बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। ।[6]
स्पर्शबंदी: निम्न जातियों का स्पर्श तक निषेध,
अस्पृश्यता
रोटीबंदी: निम्न जातियों के साथ खानपान निषेध
बेटीबंदी: खास जातियों के संग विवाह संबंध निषेध
व्यवसायबंदी: कुछ निश्चित व्यवसाय निषेध
सिंधुबंदी: सागरपार यात्रा, व्यवसाय निषेध
वेदोक्तबंदी: वेद के कर्मकाण्डों का एक वर्ग को निषेध
शुद्धिबंदी: किसी को वापस हिन्दूकरण पर निषेध
अंडमान की सेल्यूलर जेल में रहते हुए उन्होंने बंदियों
को शिक्षित करने का काम तो किया ही, साथ ही साथ
वहां हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु काफी प्रयास किया।
सावरकरजी हिंदू समाज में प्रचलित जाति-भेद एवं
छुआछूत के घोर विरोधी थे। बंबई का पतितपावन
मंदिर इसका जीवंत उदाहरण है, जो हिन्दू धर्म की
प्रत्येक जाति के लोगों के लिए समान रूप से खुला
है।।[5] पिछले सौ वर्षों में इन बंधनों से किसी हद तक
मुक्ति सावरकर के ही अथक प्रयासों का परिणाम है।
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